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Sudhir Sharma

सालों बाद जून की कोई गर्म दुपहरी उसी नीम के नीचे कोई ख़याल कागज़ पर उतरा और सिलसिला चल पड़ा…..फिर कभी इंडियन कॉफी हाउस के पेपर नेपकीन पर तो कभी केमिस्ट्री की फाइल में जमा होते गए लमहे … मटका कुल्फी वाली गर्मियों की रातें, आँगन में अलाव सेंकती सुबहें और छज्जे से टपकता सलेटी दिन… यूकेलिप्टस वाले मकान का वो मोड़ भी जहाँ से यादें लिफ्ट ले लेती हैं…कंदील से बतियाता चाँद ,गिफ्ट वाला कड़ा, तकिया टापू की मन्नतें और पटेल ग्राउंड पर लेग बिफोर होता बचपन….. गले गले भर गया गुल्लक तो सोचा तुड़वा लें ऍफ़ डी… खोलकर देखा तो ज़िन्दगी `बारह आने की पड़ीं….अठन्नी में चवन्नी ज़्यादा और रुपये में चवन्नी कम

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