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अच्छी सूरतें भी अज़ाब की मानिंद होती हैं जिधर गयीं उधर लोगो की नजरें टिक गयीं। हँसना-बोलना, खिलखिलाना और दौड़ना-कूदना सब मुश्किल। गुदाज़ बदन और प्यारी सूरतों वाली औरतें इन मुश्किल कैफ़ियात से अक्सर गुज़रती हैं। किसी के भाई को  मुस्कुराकर जवाब दे दिया किसी के शौहर से हँसकर हाल पूछ लिया, फ़िर तो मुखालिफ सिम्त की तरफ़ सुनामी आ जाना है।

अच्छी सूरत वाली के जिस्म के हर रोएं पर बड़ी पैनी निगाह रखी जाती है, मानो वो बाजार में ऊंचे दामों में बिकने वाली कोई चीज़ है, जिसका मोल नही दे पाने की बेबसी में लालच से देखना ही कहाँ कम है।

आलिया कभी-कभी जी भर के मज़े लेती। मर्दों की बेक़रार निगाहें, उसे छू लेने या उसे कुछ पल देख लेने की बेवकूफ़ाना हरकतें आलिया को ग़ुरूर से भर देतीं। मगर कभी-कभार वो सख़्त शर्मिंदा हो जाती जब अपने सगे रिश्तेदारों की आंखों में अपने लिए छुपी तलब देखती, गलीज़ तलब!

इस अच्छी सूरत और खूबसूरत खदोखाल के बावजूद आलिया की पहली शादी टूट गयी थी। पहला शौहर अजीब वहशत ज़दा सनकी इंसान था। आलिया ने उसकी आँखों मे कुछ भी नया नही देखा था अपने लिए। वही पा लेने की सनक,वही अंधेरे से भी खौफ़नाक चमकीली निगाहें।

आलिया साल भर में उकता गयी, दरअसल वो एक धड़कता हुआ नाज़ुक दिल भी रखती थी जो उसके चेहरे और पूरे वजूद जितना ही खूबसूरत था। वो चाहे जाने की ख्वाहिश करती थी, उन निगाहों का इंतज़ार करती थी जिनमे नरमी घुली हो, वो सिर्फ एक जिस्म हर्गिज़ नहीं थी। फिर इसी उकताहट और ऊब के दौरान पहले शौहर के दोस्त से आलिया की निगाहें मिलीं, आँखों को बात पसंद आयी और मामला सर से पैर तक पहुंच गया।

मर्द शादी के बाद यहां-वहां मुंह मारे तो दुनिया हंस कर तौबा कर लेती है। या फिर बहु-बेटियों के उबलते दिलों पर ज़माने के रीत रिवाज के छींटे मारे जाते हैं, फ़ख्र से समझा दिया जाता है। मगर यहां तो आलिया की बात थी, औरत होकर वो मर्दों वाले काम कर रही थी! ताज्जुब की बात तो थी ही। औरतों के नैन-मटक्के दुनिया ने कब बर्दाश्त किये हैं ? उन्हें ये हक़ किसने दिया कि आज इसे पसंद कर रही हो, कल उसे भी पसंद कर सकती हो। ये दिल विल के मामले,औरतों के लिए सरासर बर्बादी के रास्ते हैं, क़यामत की निशानी है।

पूरा गाँव इस ख़ूबसूरत आसेब की आवारगी पर थूक रहा था, जिसमे औरत मर्द बराबरी से शामिल थे। थूकने वाले मासूम चेहरे वही थे जो कालिख जैसी रातों में बंद कमरे में या सुनसान जगहों पर लज्ज़त तलाशा करते थे। घर की दहलीज़ो पर, गलियों नुक्कड़ों पर और पान की दुकानों पर, रस्ते से आती जाती औरतों के बदन की पैमाइश करते हुए मर्द हज़रात आलिया की लानत मलामत कर रहे थे। ये अलग बात है, लानत भेजने वाले ख़ुद उसकी क़ुर्बत की बेतरह ख़्वाहिश रखते थे। उसके बारे में भद्दे ख्यालात रखने वाले वो सारे शरीफ मर्द बस किसी मौके की तलाश में थे। आलिया की मेहरबान निगाहों के, उसके एक इशारे के तलबगार थे।

आलिया अच्छी तरह समझती थी। कभी तन्हाई में ख्याल आता तो लोगो की नज़रें उनकी तीर जैसी बातें उसे उदास कर जातीं, ख़ुद से वहशत होने लगती और कभी ज़ोर से कहकहा लगा कर हंस पड़ती। खिलखिलाती हुई आज़ाद हंसी !

उसके इर्द-गिर्द मर्दों का एक हुजूम था जो उसे दिन के उजाले मे बुरी गालियों से नवाज़ना चाहता था और रात के अंधेरे में  उसी के चमकते जिस्म को चाँद की तरह खुद पे ओढ़ लेना चाहता था। और इनसे कहीं ज़्यादा बेहतर वो औरतें थीं जो सूरज के सामने भी आलिया से सख़्त ख़फ़ा रहतीं और सितारों के साये में भी उसे किसी तौर बख्शने को तैयार न थीं।

आलिया की ज़हीन आँखें एक्सरे की तरह उतार लेती थीं लोगो के सीने में बंद अरमानों को। उसे आसानी से इल्म था कि उसके सुघड़ापे, उसकी दानिशमंदी  और उसकी हिसे लतीफ़ से किसी को कोई लेना देना नही, उसकी बेतहाशा खूबसूरती ने बाक़ी खूबसीरती पर पर्दा डाल रखा था।ये सारी बातें समझती हुई आलिया कभी कभी बेबसी से मुस्कुरा देती।

बहरहाल, प्यार मुहब्बत के बरसाती पानी से किनारा करते हुए आलिया ने बाकायदा दूसरी शादी करने का इरादा किया। हालाँकि उसके चाहने वाले बेशुमार थे मगर एक तलाकशुदा औरत से निकाह करने वाला मर्द दूर दूर तलक नज़र न आता। उन्ही दिनों उसकी निगाह इरशाद पर अटक गयी। लम्बे क़द का गुलाबी सा लड़का जिसकी गहरी आँखों में आलिया के लिए ज़माने भर का शौक़ नज़र आता।

उस रोज़ बाज़ार से सौदा सुलफ लेकर लौटते हुए जब उसे फिर से टकटकी बाँध कर तकते देखा तो आलिया की हंसी छूट गयी। सुर्ख होंटो के दरमियां उजले मोतियों की बहार देख इरशाद दिल जिगर सब वहीँ हार बैठा।

“ए सुनो..यहाँ क्यूँ खड़े रहते हो? इसी गाँव के हो? पहले तो नहीं देखा…”

“जी वो…दूसरे शहर रहकर पढाई कर रहा था, अब वापस आ गया हूँ।” इरशाद अटकते हुए बोला, चेहरा ताज़े गुलाब सा सुर्ख हो उठा।
“वाह ख़ूब तालीम लेकर आये हो! सुबह शाम मुझे घूरते क्यूँ हो?
“आप…आप अच्छी लगती हैं मुझे।”
“अच्छा! अभी ज़रा ढंग से बड़े हो जाओ फिर करना ये सब, समझे? पैदा हुए नहीं कि आशिकी सूझ गयी।” आख़िरी जुमला धीमे से बोलती हुई आलिया घर की दहलीज़ पे क़दम रखने को हुई कि पीछे से आवाज़ आई
“इक्कीस साल का हूँ, बच्चा नहीं हूँ।”
इरशाद ज़रा तुनक कर बोला तो भीतर जाती हुई आलिया पलट आई
“अच्छा? किसके लड़के हो? बताना ज़रा, शक्ल ज़रा जानी पहचानी सी लग रही है..”
“जी, मैं फज़ल खान का बेटा हूँ।”
फज़ल खान! ये नाम सुनते ही आलिया के बदन में जैसे छिपकली रेंग गयी। उसकी कटीली भवें तन गयीं, चटक कर बोली
“फ़ज़ल खान के बेटे हो! बाप की तरह तुम भी किसी औरत को मत छोड़ना, हर किसी पे हाथ आज़माना।”
“ऐसे क्यूँ कह रही हैं…मैं उनकी तरह नहीं हूँ। आपसे मुहब्बत हो गयी है… सच्ची मुहब्बत।”
वो घबराते हुए जल्दी जल्दी बोल गया
“सच्ची मुहब्बत! तो फिर निकाह करोगे मुझसे?

आलिया की आँखों में तंज़ था गुस्सा था, जिसे इरशाद ने पढ़ लिया और फ़ौरन हाँ में सर हिला दिया। हालाँकि उस वक़्त ये बात आलिया के लिए ख़ास अहमियत नहीं रखती थी मगर इरशाद कमसिनी के जज़्बात में सर से पैर तक भीगा हुआ था। उसने ज़मीन आसमान एक कर दिया अपनी मुहब्बत पाने के लिए। और आख़िरकार आलिया को मना कर दम लिया।

हाय! बड़ी हाय-तौबा मची थी। ऐसे भी कोई बदला लेता है क्या?
अरे फज़ल चाचा ज़रा सा देखते ही तो थे, दो-चार बार रस्ता ही तो रोका था। दो-तीन बार बहाने से उसकी पीठ कमर ही तो छू लिया था। ऐसा कौन सा किसी को क़त्ल कर दिया या किसकी जायदाद लूट ली थी फज़ल चचा ने। वो ख़बर थी या नन्हा मुन्ना ज़लज़ला !

फ़ज़ल चचा ने जब सुना तो भद्दी गालियां देते हुए उसकी दफ़न की हुई सात पुश्तों को भी न बख़्शा। गाली गलौज से काम नहीं बना तो आलिया की जवानी के ऐसे ऐसे क़िस्से गाँव में मशहूर किये जिससे ख़ुद आलिया के फ़रिश्ते अनजान थे। फ़िर आख़िरकार थक हार कर आलिया के सामने सर झुका कर खड़े हो गये बोले –

“मेरा बेटा इरशाद कमउमर है बच्चा है, उसे छोड़ दे आलिया। अभी उसके लिखने पढने की उमर है।”

“आपकी उम्र क्या करने की है?

तंज़ से पूछते हुए आलिया के कटावदार लब मुस्कुरा उठे। लम्बी भवें कमान की तरह तन गयीं। फज़ल चचा ने आस भरी निगाह डाली, हारे हुए क़दमो से बाहर निकल गये। घर पहुँचते ही पानी पी पी कर आलिया और अपनी बीवी, दोनों को जी भर गालियाँ दी। कमबख्त बीवी कम गलतीदार नहीं थी, बेवकूफ़ कमअक्ल औलाद आख़िर उसी ने तो पैदा किया था। हाय क्या-क्या न जला क्या-क्या न बुझा मगर…. मजाल है जो आलिया ने उनके कमउम्र बेटे को हाथ से जाने दिया हो… नज़रों की मार ऐसी थी कि कमसिन लड़के इरशाद ने दिल गुर्दा सब लुटा दिया था।

नयी जवानी नए ख़ून को आलिया ने हुस्न की ऐसी रंगी दुनिया दिखाई कि लड़के ने शादी के लिए घर मे कोहराम मचा दिया। शादी तो होनी ही थी हो गयी, आलिया की तंजिया तीख़ी निगाहों को फ़ज़ल चचा के सामने सुकून मिलना ही था वो भी मिला।

मगर ..
ये अगर मगर जैसे बदसूरत तकलीफदेह लफ्ज़ आलिया को चैन न लेते देते। हर दफा उसकी ज़िंदगी में सवाल क्यूँ पैदा हो जाते हैं? क्या ढूंढ रही है वो? आलिया अपने नए शौहर को देखती। वही ख़मीर, जिससे गूंध कर मर्दों को बनाया गया है, वही पा लेने की भूख और फ़िर.. वही निगाह जिनमे रहम दम तोड़ देती है।

उसकी जल्दबाज़ फ़ितरत, बात-बात पर शक करने की आदत ने आलिया को अजीब मायूसी में मुब्तिला कर दिया। इरशाद सर्द निगाहों से उसे देखता फिर गाहे बगाहे कह उठता-

“इतना बन संवर कर क्यूँ रहती हो? अगर मुझे दिखाने के लिए ये सब लगाती हो तो मत लगाया करो। मुझे औरतों का सादा रहना पसंद है, ये लिपस्टिक क्रीम पाउडर लगाने वाली औरतें बदकिरदार होती हैं।”

“लेकिन इरशाद.. तुम्हे तो मेरा सजा संवरा रूप अच्छा लगता था न? तुम खुद मेरे लिए लिपस्टिक लाया…

आलिया की बात काटते हुए इरशाद बोला –
“देखो पहले की बात और थी। फ़िलहाल, अब तुम एक इज्ज़तदार घर की बहु हो।”

इज्ज़तदार घर! फज़ल चाचा और उनके बेटे… सब के सब इज्ज़त वाले! आलिया उसकी बातें सुनकर हैरान नहीं होती, जैसे जानती थी बस कुछ ही रोज़ में ये जुमले अदा किये जायेंगे। वो इस नए लड़के इरशाद की बदलती निगाह पहचानने लगी थी। उसके हाथों की खत्म होती हरारत महसूस करने लगी थी, वो ऊबने लगी थी।

घर से बाहर निकलने की सख्त मनाही ने आलिया के चेहरे की रौनक छीन ली। गालों के गुलाब मुरझाने लगे, हंसने-हंसाने की मुहिम मद्धम हो गयी, गाँव के लड़के बेज़ार रहने लगे। सुबह दोपहर शाम किसी में कोई कशिश न बची। वो फिर से पिंजरे में क़ैद,बंदिशों की गिरफ्त में आ गयी थी।

क़ुदरत ने आलिया को आज़ाद बनाया था, आज़ादी की हवा ही रास आती थी उसे। अबकी दफ़ा अम्मा ने दरगाह पर चादर चढ़ाई थी। दुआ मांगी थी,

“मेरी बेटी का घर बसा रहे, ससुराल में बनी रहे, शौहर के साथ महफूज़ रहे।” दुआएं क़ुबूल करने वाले ने अम्मा के बुदबुदाते होंठों को देखा और हंस पड़ा। खुले आसमान से ख़ूब पानी बरसा, नन्ही बूँदें रुकना कहाँ जानती थीं? वो बहती रहीं कभी इस ओर कभी उस ओर। राह बदलती नदियाँ दूर तक फ़ैली हुई धरती.. कुछ भी क़ैद नहीं था, कोई शय सिमटी नहीं थी।

फ़िर आलिया कैसे सिमट जाती? वो मछली नही थी जो छोटे से शीशे के डिब्बे में अपनी दुनिया ढूंढ लेती, आलिया समन्दर थी, हवा थी, जो अपनी मर्ज़ी से जिधर चाहे उधर बहती। बेख़ौफ़ बेपरवाह !

और फ़िर यूँ हुआ, दूसरे शौहर इरशाद की बेजा हिदायतों और बंदिशों को चुटकियों में उड़ाकर आलिया खिलखिलाकर हंस पड़ी। वही तेज़ खनकती हुई हंसी जिसे सुनते ही शबनम में लिपटी कलियां अंगडाई लेते हुए फूल बन जाया करती हैं। ख़ामोश नदी का सोया हुआ पानी अचानक जाग उठता है और किनारों पर बसे अपने दिलदार के सीने पे सर टिकाने को बेकरार हो उठता है। वही उजली चमकदार हंसी!

“हाये! कम्बख़्त की जवानी को आग लगे, इसकी मक्कार हंसी से ख़ौफ़ आवे है मुझे। मनहूस की सूरत पे जिन्नों का साया है, जिसे चाहती है क़ब्ज़े में कर लेती है।” आलिया की जेठानी ने अपने शौहर की रंगीनमिजाज़ी से घबराकर, नफ़रत भरी निगाह से आलिया को देखते हुए कहा।

आलिया ने गहरी काजल भरी आँखों से जेठानी को देखा, उन आँखों में छुपे डर को देखा और नख़रे से भर उठे वजूद को संभालती, तिलिस्मी मुस्कुराहटों के साथ घर की दहलीज पार कर गयी।

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